तुम लगतीं बरगद की छाँव

तुम लगतीं बरगद की छाँव

गीत✍️ उपमेंद्र सक्सेना एडवोकेट 

हुए प्रेम की पगडंडी पर
घायल विश्वासों के पाँव
घिरा वेदनाओं से जीवन
उजड़ गया सपनों का गाँव।
🌹🌹
निकली अर्थी आशाओं की
आज आस्था देखो छलती
सोच टँगी है दीवारों पर
और दिलों में नफरत पलती
देखे बिना तुम्हें युग बीता
बात यही हमको है खलती
मिलन हमारा कैसे संभव
सारी दुनिया हो जब जलती
🌹🌹
बगुला भगत लगाते पहरा
घनी कुटिलताओं की ठाँव 
घिरा वेदनाओं से जीवन
उजड़ गया सपनों का गाँव।
🌹🌹
लगा प्रेम का रोग जिसे भी
सारा सुख अपना वह खोता 
कैद हुआ पिंजरे में मानो
आज भावनाओं का तोता
होती उथल-पुथल मन में जब
कैसे बेचैनी में सोता
हार सिकंदर भी जाता जब
कूदा इस दरिया में होता
🌹🌹
तुमको अपना मान लिया पर
खेला है किस्मत ने दाँव
घिरा वेदनाओं से जीवन
उजड़ गया सपनों का गाँव।
🌹🌹
फँसी हुई है नाव भँवर में 
दिखें नहीं अब कहीं किनारे
बढ़ी घुटन है ऐसी अब तो
दु:ख बैठा है पाँव पसारे
कब से कुछ कहने को तुमसे
शब्द कंठ में दबे हमारे
मधुरिम यादें बनीं धरोहर 
जीवित हूँ अब इसी सहारे
🌹🌹
संतापों की धूप सताए
तुम लगतीं बरगद की छाँव
घिरा वेदनाओं से जीवन
उजड़ गया सपनों का गाँव।
🌹🌹
रचनाकार -✍️उपमेंद्र सक्सेना एडवोकेट
'कुमुद- निवास', बरेली
 मोबा.-98379 44187

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4 Comments

Mohammed urooj khan

15-Feb-2024 12:53 AM

👌🏾👌🏾👌🏾

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Sushi saxena

14-Feb-2024 04:24 PM

Nice

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Madhumita

13-Feb-2024 10:44 PM

Nice

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